Spiritual Story in Hindi | मामा प्रयागदास जी

मामा प्रयागदास जी Spiritual Story in Hindi 

जनकपुर में एक ब्राह्मण दम्पत्ति वास करते थे। 

ब्राह्मण परम विद्वान् और प्रेमी थे। ब्राह्मण बड़े बड़े लोगो के यहां आया जाया करते थे, बड़े बड़े विद्वान् उनके साथ चलते थे।

Spritual story in Hindi

धन, सम्पत्ति की भी कोई कमी न थी परंतु उनके घर बहुत समय से कोई संतान उत्पन्न नहीं हो रही थी और इसी कारण से वे दोनों पति- पत्नी बहुत दुखी रहते थे।

एक दिन उनके घर में एक संत जी पधारे। ब्राह्मण पति -पत्नी ने संत जी की बड़ी उचित प्रकार से सेवा की और सत्कार किया।

ब्राह्मण संत से प्रार्थना करते हुए बोले – हे संत भगवान् ! विवाह होकर बहुत वर्ष बीत गए परंतु हमारे कोई संतान नहीं है, आप कृपा करे।

संत जी बोले – यदि तुम भावपूर्ण निरंतर संतो की सेवा में लगे रहो तो तुम्हे पुत्र प्राप्त होगा। संत के कहे अनुसार ब्राह्मण दंपत्ति निरंतर संत सेवा में रत रहने लगे।

उन दिनों प्रयाग में कुम्भ पड़ा, ब्राह्मण पति पत्नी दोनों कुम्भ में पधारे और वहाँ सभी संतो की बहुत प्रेम से सेवा करी।

वापस जनकपुर लौट आनेपर कुछ ही समय बाद पत्नी गर्भवती हो गयी। भगवान् बड़े विचित्र लीला विहारी है, उनकी लीला कोई नहीं समझ सकता।

जैसे जैसे गर्भ बढ़ता जा रहा था वैसे वैसे ब्राह्मण बीमार होते गए और जैसे ही बालक प्रकट हुआ तो ब्राह्मण जी परलोक सिधार गए।

अब वह ब्राह्मणी माता अकेले ही बालक का पालन पोषण करने लगी। प्रयाग में संत सेवा करने के कारण यह बालक उत्पन्न हुआ था अतः इसका नाम प्रयागदत्त रख दिया। प्रयागदत्त अर्थात प्रयाग द्वारा प्रदत्त।

बालक थोड़ा बड़ा हुआ तो एक दिन घर में आग लग गयी, सब जल कर राख हो गया।

ब्राह्मण के प्रभाव के कारण घर में बड़े बड़े लोगो का, यजमानो का आना जाना लगा रहता था।

वह लोग धन दे जाते थे परंतु बालक पैदा होने पर सब लोग कहने लगे – बालक के घर में आते ही पिता की मृत्यु हो गयी और कुछ ही समय बाद घर में आग भी लग गयी, अवश्य ही यह बालक बड़ा अनिष्टकारी है।

ब्राह्मणी आस पास के घरों से अन्न मांग लाती और किसी तरह बालक को खिलाती।

जब बालक लगभग आठ वर्ष का था तब खेलने कूदने की इच्छा से आस पास के लड़को से खेलने के लिए चला जाता परंतु उन बालको के घरवाले कह देते की यह प्रयागदत्त बड़ा अनिष्ठ बालक है, उसके साथ रहोगे तो हानि ही होगी।

बड़े बड़े संत महात्मा भ्रमण करते करते प्रगायदत्त का दर्शन करने आते। आस पास के लोग समझ नहीं पाते थे की इस अनिष्ट प्रयागदत्त को देखने संत महात्मा क्यों आते है ?

उन्हें यह ज्ञात नहीं था की यह बालक अनिष्टकारी नहीं अपितु परम संत है।

एक दिन राखी पूर्णिमा ( रक्षाबंधन ) का त्यौहार आया। प्रयागदत्त पास ही के एक घर में देख रहे थे की सब भाई बहन बड़े आनंद से त्यौहार मनाने लगे।

बहने अपने भाइयो का पूजन करके राखी बाँधती। मिठाई पवाती, दुलार करती और भाई के मंगल की प्रार्थना करती।

प्रयाग दत्त ने घर आकर अपनी माता से पूछा -माँ ! क्या मेरे और कोई नहीं है ? राखी बाँधने के लिए क्या मेरी कोई बहन नहीं ?

माता ने बच्चे के सन्तोषार्थ कह दिया – हाँ बेटा ! तुम्हारे है क्यों नहीं कोई। तुम्हारी एक बहन हैं।

बालक बोला – कहा है मेरी दीदी ? उनका नाम क्या है ? वो मुझे कभी दिखी क्यों नहीं ?

माँ बोली -बेटा तुम्हारे बहनोई (जीजा ) बहुत बड़े राजा है, वे बहुत दूर अयोध्या नगर में रहते है और दीदी उनकी सेवा में व्यस्त रहती है ।

तुम्हारी दीदी का नाम जानकी है और उनका विवाह अयोध्या में चक्रवर्ती राजाधिराज महाराज दशरथ के बेटे श्री रामचंद्र से हुआ है।

अयोध्या उनकी राजधानी है और तुम्हारे बहनोई श्रीरामचंद्र जी वहाँ के राजा है। मिथिला की माताएँ स्वभावत: श्री जानकी जी के प्रति पुत्री या भगिनी भाव रखती है।

बच्चे ने कहा -तो माँ ! मैं उनके पास जाऊंगा। माता बोली- अच्छा, कुछ और बड़े हो तब जाना। इस प्रकार टाल दिया।

लेकिन बालक के हृदय में बहनोई बस गये। उसको सुरति बहनोई में लग गयी। किसी तरह कुछ दिन बीते।

फिर एक दिन प्रयागदत्त ने माता से कहा – माँ ! अब तो मैं सयाना हो गया। अब मुझे बहनोई के पास जाने दो।

माता ने समझाया पर बालक नहीं माना। वह कहने लगा – अपने दीदी और जीजा जी को देखे बिन, मुझे खाना पीना कुछ अच्छा नहीं लग रहा।

माता सोचने लगी की जानकी जी क्या अपने इस अबोध भाई की उपेक्षा कर सकती है ?

माता ने उत्तर दिया – ठीक है तुम जाओ परंतु सोचने लगी की बेटी के घर खाली हाथ जाना भी अच्छा नहीं लगता। माता ने कहा – बेटा ! तुम ठहरो, मैं तैयारी कर दूँ, बहिन के लिये कुछ लेते जाओ।

उस समय जनकपुर से कुछ लोग अयोध्या ओर जा रहे थे। माता ने सोचा की प्रयागदत्त को इनके साथ भेजकर कनक बिहारिणी बिहारी ( सीताराम ) जी के दर्शन कराकर लौटा लायेंगे।

माता ने आस पास से मांगकर चावल के कुछ कण इकट्ठे किये थे। आज भगवत्कृपा से माता को अच्छे चावल मिल गए। उन्हें पीसकर और मीठा मिलाकर कुछ मोदक बनाये, जिन्हें मिथिला में ‘कसार’ कहते हैं।

माता ने कहा – यह मोदक तुम्हारे जीजा जी और दीदी के लिए है। उन कसारों की पोटली प्रयागदत्त को देकर विदा किया और कुछ सत्तू ( भूने हुए जौ और चने को पीस कर बनाया जाने वाला व्यंजन ) उनके खाने के लिये भी दे दिया।

प्रयागदत्त बहिन-जीजा जी से मिलने बड़ी प्रसन्नता और उत्सुक्ता मे चले। मन मे यही होता कि कैसे शीघ्र से शीघ्र अयोध्या पहुँचते जाऊँ।

जहाँ कही प्रयागदत्त अपने शारीरिक कृत्य के लिए ठहरते हैं, किसी वृक्ष की डाल में वह पोटली टांग देते हैं। इस प्रकार कुछ दिनों में वे अयोध्या जी पहुँच गये।

अयोध्या मे प्रयागदत्त अपने चक्रवर्ती जीजा रामचंद्र को खोजने लगे, जिससे पूछते, वह हंस देता। बेचारे बहुत परेशान हुए।

बैठ के रोने लगते, जब कोई संत लोग पास आकर कहते – बेटा ! क्यों रो रहे हो ?

प्रयागदत्त कहता – हम अपनी दीदी और जीजा जी को खोज रहे है, वे हमें मिल नहीं रहे।

संत पूछते – क्या नाम है तुम्हारी दीदी और जीजा का ? प्रयागदत्त कहता – चक्रवर्ती रामचंद्र और जानकी नाम है। संत लोग कहते – वो सामने कनक महल है, वहाँ चले जाओ।

अंदर जाकर पुजारी जी से पूछते की हमारी दीदी जानकी और जीजा रामचंद्र कहाँ है।

पुजारी जी कहते – ये रहे सामने। प्रयागदत्त जी कहते – नहीं नहीं मूर्ति नहीं, सच वाले दीदी जीजा चाहिए हमें तो। सब लोग यही समझते की भोला बालक है, हठ कर रहा है।

बाद में स्वयं ही प्रयास करके बहुत ढूंढा परंतु बहनोई जी कहीं नहीं मिले। मणिकूट की ओर गये। वहाँ भी खोजते रहे।

फिर तंग आकर एक जगह बैठ गए, जहाँ सीताकुण्ड को जानेवाले रास्ते के दक्षिण सघन विटपावलिसे आच्छादित पुरानी मस्जिद है, जिसमे पूर्व में हनुमन्निवास श्री अयोध्या के भक्त पूज्य बाबा गोमती दास जी महाराज भजन करते थे।

प्रयागदत्त बहुत थक गये थे। बहनोई जी को रिश्ते से खूब गालियों देने लगे।

कहने लगे- देखो, इतना ढूंढा, हैरान हुआ, कहीं मिलता ही नहीं। न जाने कहाँ रहता है ? अब क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ?

माता तो कहती थी की जीजा जी बहुत बड़े चक्रवर्ती सम्राट है, सब इन्हें जानते है।

इतने में आवाज आयी – राजाधिराज चक्रवर्ती सम्राट परब्रह्म अखिलकोटि ब्रह्मण्डनायक भगवान् श्रीरामचंद्र जी पधार रहे है।

एक श्वेत हाथी पर सोने की अम्बारी में विराजे हुए उनकी बहिन सहित बहनोई साहब आ निकले।

हाथी वही पास बैठ गया, रामचंद्र जी उतर कर वही खड़े हो गए। प्रयागदत्त जी तो देखते ही रह गए।

श्री किशोरी जी प्रयागदत्त जी को हृदय से लगाकर दुलार करने लगी और उनकी भावना के अनुसार पहले राखी बाँधी।

फिर पूछा – भैया ! माता ने हमारे लिये कुछ दिया है ? भैया की तो गति ही अचिंत्य हो गयी।

प्रयागदत्त जी सोचने लगे – माँ सत्य कहती थी, हमारे जीजा जी बहुत बड़े सम्राट है और जैसी हमारी दीदी है वैसी किसी की दीदी नहीं है।

किसी तरह अपने को सँभालकर कहा – हाँ, दीदी ! यह है लो। पोटली दे दी और बोले – मैंने तो बहुत खोजा परंतु तुम लोग मिले ही नहीं, न जाने कहाँ रहते हो ! कोई बताता ही नहीं।

श्री किशोरी जी ने पोटली लेते हुए कहां – हाँ भैया ! तुम्हें कष्ट तो बहुत हुआ। क्या करें हम लोग ऐसी जगह रहते हैं, जिसे सब लोग नहीं जानते।

जानकी जी ने माता की भेजी हुई और भैया को दी हुई पोटली में से दो कसार निकाल लिये और पहले प्रभु को पवाये, स्वयं पाये।

शेष प्रयागदत्त को देते हुए कहा- भैया ! इन्हें तुम खाना और अब तुम घर जाओ, माता चिन्ता करती होगी।

कुछ दिनों के बाद फिर आ जाना और माता से कह देना कि हम लोग बड़े सुख से हैं। फिर मिलेंगे।

हाथी खड़ा हो गया और दोनों राम जानकी उस पर सवार होकर चलने लगे, कुछ दूर जाकर हाथी अदृश्य हो गया।

मामाजी अपने बहिन बहनोई के ध्यान में २४ घंटे मूर्छा की अवस्था में वहीं पड़े रहे। वाणी रुद्ध और नेत्रो में अश्रु प्रवाह जारी था। दूसरे दिन उनकी दशा कुछ सँभलने लगी।

उधर ही एक संत आ निकले। उन्हाने देखा कि एक सन्दर सुगौर कुमार बेतरह पड़ा हुआ है। निकट जाकर उसे ध्यान से देखा और हाल पूछा।

यद्यपि उसने ठीक तरह से कुछ बताया नहीं तथापि महात्मा रहस्य ताड़ गये। निकट ही उनकी गुफा थी।

प्रयागदत्त को वही ले गये। उचित उपचार किया। स्नान-जलपान कराया। जब वे सावधान हुए तब फिर एक बार उन्होंने उनका हाल पूछा।

पूछते ही प्रयागदत्त रो पड़े। महत्मा जी भी आद्र हो गये। कुछ देर तक भावावेश में ही रहे। अनन्तर प्रकृतिस्थ हाने पर प्रयागदत्त जी ने स्वयं महात्मा जी से अपना सब वृत्तान्त कहा।

महात्मा जी ने गद्गद होकर उन्हें छाती से लगा लिया।

मेरे प्यारे का यह भी प्यारा है। मेरी आखों का भी सितारा है।

घड़ी रात गये कुछ ग्रामीण माताएँ आयी और दो भोग-थाल निवेदन करती हुई बोली – आज़ हमारे यहाँ भगवान् की पूजा और कथा हुई है।

यह प्रसाद आप लोगो के लिए लायी हैं, ले लीजिये, थाल सबेरे ले जायेंगे। हमे घर जल्द पहुंचना है, रात हो गयी है।

थाल रखकर यह कहती हुई वे उलटे पैर लौट गयीं। थाल न जाने किस खान के अदभुत सोने के थे। उन पर पुरैन के पत्ते बिछे थे, जिन पर नाना प्रकार के व्यंजन चुने थे।

महात्मा जी और मामा जी मन्त्र मुग्ध की तरह देखते रह गये। पीछे जब महात्मा जी ने पत्ते टालकर थाल देखे, तब हैरान रह गये। रहस्य समझ गये।

जानकी जी ने ही अपनी सखियों को थाल लेकर भेजा था। सहृदय महात्मा जी ने प्रयागदत्त जी को प्रेम से खिलाया और स्वयं भी पाया।

उन लोकोत्तर रसास्वादमय दिव्य भोगोका सेवन करके वे दोनों महात्मा मस्त हो गये। वे सब पदार्थ भगवद्रस (ब्रह्मानंद) से सने हुए थे, स्थुलता का हरण करनेवाले थे और चेतना का संचार करनेवाले थे।

तत्काल नवीन तेज, नवीन बल और नवीन चेतना से शरीर चमक उठे। मामा प्रयागदत्त जी का सारा श्रम और ग्लानि क्षणभर में कपूर की तरह उड़ गयी। हृदय कमल आनन्द-रस सरोवर मे लहराने लगा।

प्रात:काल प्रयागदत्त जी को विदा करते हुए महात्मा जी दोनों स्वर्ण थाल साफी मे लपेटकर उन्हें देने लगे क्योंकि उनका कोई लेने वाला न आया और न आने वाला था।

परंतु प्रयागदत्त जी ने नहीं लिया, बोले कि माता नाराज होगी, कहेगी कि बहिन के घर से चीज क्यों लाये ?

फिर महात्मा जी उनके साथ गये और रास्ते पर पहुँचाकर जब लौटे, तब थाल ले जाकर गणेश कुण्ड मे डाल दिये।

रमा बिलास राम अनुरागी।

तजत बमन जिमि जन बडभागी।।

बहिन-बहनोई की भावना में मस्त प्रयागदत्त जी घर पहुंचे। माता ने पूछा तो सब हाल कह सुनाया।

पुत्र का वृत्तान्त सुनकर माता चकित रही और बहुत प्रसन्न हुई। हृदय तल से एक प्रबल, परंतु गम्भीर करुण स्त्रोत फूट निकला और आखो मे छलछला उठा।

साल बीतने भी नहीं पाया कि प्रयागदत्त जी की माता साकेत धाम प्रयाण कर गयी।

प्रयागदत्त जी अकेले रह गये, घर में और कोई भी नही। माता के देव पितृ-कर्म के बाद अकेला पाकर वैराग्य और अनुराग, दोनों उन्हें पूर्णतया अधिकृत करने लगे।

पास के एक ग्राम के एक प्रतिष्ठित और सुसंपन्न ब्राह्मण चाहते थे कि प्रयागदत्त को जमाई बनाकर अपने घर रखें और अपना उत्तराधिकारी बनाए।

उनके भी एकमात्र कन्या रह गयी थी। पुत्र स्वर्गगामी हो चुके थे। यद्यपि प्रयागदत्त दीन और दरिद्र थे, पर रूप, शील और कुल से सम्पन्न थे।

ब्राह्मण जानता था की प्रयागदत्त जी के पूर्वपुरुषो में अनेक यशस्वी विद्वान् हुए है। उनके पिता भी सात्विक गुणों से मण्डित एक प्रतिष्ठित पण्डित थे। जनता को उनमें बडी श्रद्धा थी, बहुत लोग उनके शिष्य थे।

जब ब्राह्मण मिथिला नागरी में आया तब लोगों ने कहा कि लड़का अभागा है, कुलच्छनी है। पिता का भी भक्षण किया और धन-सम्पत्ति का भी।

यह सब सुनकर ब्राह्मण ने प्रयागदत्त को कोरा जवाब दे दिया और लौट गया।

प्रयागदत्त जी को तो संसार में कोई रस था ही नहीं, उनका मार्ग अब खुला हो गया।

प्रयागदत्त जी ने अब अयोध्या जाने का निश्चय किया।

मिथिला से सीधे अयोध्या पहुंचकर सरयू जी में स्नान किया। पहले वे मणिकूट के उसी स्थान विशेष पर सीधे पहुंचे, जहाँ उन्हें अपने सीताराम जी के दर्शन मिले थे।

कुछ देर वहाँ बैठे पर उनके मिलने की ऐसी धुन उन्हे सवार थी कि विश्राम करने के लिये भी अवकाश नहीं था। कुंजो और झाड़ियो में चारो ओर उन्हें ढूंढते फिरे।

ढूंढते ढूंढते पूर्वपरिचित महात्मा श्रीत्रिलोचन स्वामी की ओर निकल गये। महात्मा जी ने इम्हें पहचाना और प्रेमपूर्वक स्वागत किया। विश्राम कराया।

इनको बिह्फता शान्त करने के लिये उन्हाने अनेक भगवद् रहस्य की बातें कही, पर उससे वह और भी तीव्र हो गयी।

धीरे-धोरे स्वामीजी ने अपने अपूर्व सत्संग के प्रभाव से उन्हें शान्त और सावधान किया। फिर कुछ भोजन कराया।

दूसरे दिन प्रात:काल प्रयागदत्त जी श्री त्रिलोचन स्वामी जी के चरणो मे लोट गये।

स्वामी जी ने उन्हे वात्सल्यपूर्वक उठाकर बैठाया। महात्मा जी में उनकी श्रद्धा आकर्षित हो चुकी थी। स्वामी जी से उन्होने वैराग्य दीक्षा के लिये प्रार्थना की।

सद्गुरु में उमड़ती हुई श्रद्धा के उसी मुहूर्त को उपयुक्त समझा और दीक्षा दे दी। लँगोटी – अँचला प्रदान किया। प्रयागदत्त जी अब प्रयागदास जी हो गये।

कुछ रात गये प्रयागदास जी की दशा कुछ ऐसी चढ़ी कि वे सोते ही उठ पड़े और वन- बीहड़ो में जहां -तहां घुमने लगे।

जिधर निकल गए उधर ही निकल जाते। चल रहे हैं परंतु पता नहीं कहाँ जा रहे है, न जाने क्या-क्या देखते हैं। न जाने किससे क्या कहते हैं।

दिन -दिन और रात-रात इसी दशा में बीत रही है, न खाने की सुध, न पीने की चिन्ता, न सोने की परवाह।

अखण्ड योगनिद्रा और दिव्य स्वप्न। किसी ने खिला दिया तो खा लिया और पिला दिया तो पानी पी लिया। कोई-कोई प्रेमी तो उन्हें अपने हाथ से भी खिला दिया करते थे और इसमे वे बड़े सुख का अनुभव करते थे।

परमहंस प्रयागदास जीे को कभी कभी लड़के छेड़ा भी करते और न जाने किसने सिखला दिया था कि सब उन्हें ‘मामा-मामा’ कहने लग गये।

केश बिखरे हैं, शरीर पर धूल पड़ी है और आँखें चढ़ी हूई हैं। लक्ष्मी जी के भ्राता होने से आकाश में चन्द्रमा ही लड़कों के मामा थे, अब जानकी जी के भ्राता होने से प्रयागदास जी भूतल पर दूसरे मामा हो गए।

प्रयागदास जी को जहाँ – तहाँ सीताराम जी अनेक लीलाएं दिखाई दिया करती। जिस लीला का दर्शन करते, उसी का अपनी वाणी से वर्णन करते रहते।

एक बार उन्हे वन यात्रा की लीला दृष्टिगोचर हुई। फिर तो वे अपने जीजा जी से नाराज हो गये और यह कहते फिरे – देखो अपने आप वन में गया और मेरी सुकुमारी बहिन को भी बन-बीहड में लेता गया।

अब वे पैसै बटोरने लगे। यदि कोईं पैसा देता, तो अब वे ले लेते और रखते जाते। कुछ दिनो मे जब काफी पैसे जमा हो गये,

तब उन्होंने उनसे तीन जोड़े जूते बनवाये-जितने बढ़िया वे बनवा सकते थे और तीन सुन्दर सुकोमल तोशक और इतने ही पलंग। तीनों पलंग ऐसे, एकसे छोटा एक बनवाया कि एक के पेट में एक अटक सके।

एक के ऊपर एक करके क्रमश: तीनों पलंग रख लिये। ऊपर वाले पलंग पर तीनों तोशक बिछाये और तीनों जोड़े जूते रखे।

उन्हें सिरपर रखकर वे ले चले। चलते चलते मामा जी पहुंचे जाकर चित्रकूट। जहाँ जहाँ मार्ग में कुशा-कण्टक मिलते, वहाँ-वहाँ वे अपने जीजा राम जी को कोसते गये।

स्फटिक शिला के परम रम्य प्रदेश मे वे जाकर ठहरे। तीनों पलंग सुसज्जित कर दिये। फूल भी तोड़-तोड कर बिछा दिये।

तीनों पलंगो के तले तीनों जोड़े जूते भी रख दिये। कुछ देर इधर-उधर देखते रहे। फिर झाड़ियों में घुस घुसकर खोजने लगे।

कही भी कुछ आहट मिलती, कोई खड़खड़ाहट होती, तो उधर ही वे उत्सुकता से देखने लग जाते। आखों मे अश्रु भरे, राम की बाट शोध रहे हैं !

जब इधर-उधर कही कुछ पता नहीं चला, तब मन्दाकिनी की ओर लौटने लगे और कहने लगे – देखो, छिप गया न, जान गया कि प्रयागदास आ गया। अच्छा छिपो, कितनी देर छिपा रहेगा।

प्रयागदास जी को लगा की शायद हमें देख कर सकुचा रहे है, पास ही झाड़ियो में जाकर छिप गए।

थोड़ी देर में प्रयागदास जी ने पलंगो के पास आकर देखा तो आश्चर्य से देखते ही रह गए, तीनो पलंगों पर तापस वेष में त्रिमूर्ति श्रीरामचंद्र लक्ष्मण और श्री जानकी जी विराजमान हैं।

आनन्द का समुद्र ही उमड़ पडा। विह्फलता पूर्वक बोल उठे – तुम लोग कहाँ थे, कब आये ? मैं तो तुम्हें ढूंढता फिरा।

फिर दौड़कर, सबके चरणों में जूते पहनाये। रामजी से बोले -अजी, इस जंगल में तुम क्यों चले आये ? और मेरी सुकुमारी बहिन को भी लेते आये। इस वन बीहड़ में तुम लोग कैसे रहते हो ?

जानकी जी ने कहा -भैया ! मै स्वयं चली आयी हूँ, ये तो नहीं लाते थे।

प्रयागदास जी बोले -अच्छा, तो हम भी तुम्हारे साथ – साथ रहेंगे और पलंग लेकर चला करेंगे।

भक्तभावन भगवान ने कहा – भाई ! हमारी वन-यात्रा का ऐसा नियम है कि हम तीन ही साथ रहते है। चौथे किसी को साथ नहीं रखते,

हम पलंगपर भी नहीं बैठते। यह तो तुम्हारी रुचि रखने के लिये अभी बैठ गये है। अब तुम इसे ले जाओ और अपनी सेवा में रखो। इस पलंग पर आप ही शयन किया करो।इससे हमे अपने उपभोग से अधिक संतोष होगा।

जानकी जी बोली- भैया ! तुम तनिक भी चिन्ता न करो, हम बड़े सुख से वन मे रहते हैं। सब वनवासी हमारी सेवा करते रहते हैं। कोई कष्ट नहीं होने पाता ! मुझे तो वन बहुत सुहावन लगता है। हम लोग फिर मिलेंगे।

प्रयागदास जी बोले – तीनो के तीनो एक ही बात कह रहे हो, हमें भी कुछ सेवा का मौका दो।

लक्ष्मण जी ऐसा सुन्दर अवसर भला क्यों चूकने लगे। उन्होंने साले साहब से कहा- प्रयागदास जी ! तब हमें ले चलना है तो चलो ? 

प्रयागदास जी बड़े प्रसन्न हुए। बाल उठे- हाँ हाँ, चलो। लक्ष्मण जी ने कहा – हमारे प्रभु चले तो हम चलेंगे।

साकार ने कहा – प्रयागदास जी ! तुम जाओ। ये ऐसे ही मजाक करते है। प्रयागदास जी बड़बड़ाते हुए चलते हुए कहने लगे- देखो, चलना बलना कुछ नहीं, मुझसे ठट्ठा करता है।

किसी कैकेई मंथरा वगैरा ने कुछ नहीं किया। ये सब अपने आप ही वन में आये है, सोने का महल काटता है, वन-बीहड अच्छा लगता है। बहिन तो भोली भाली है, साथ-साथ चली आयी। जो वह कहता है, वही करती है।

जंगल में हरे भरे पेड़-पल्लव और पंछी-हिरन देखती है, बस जानती है, वन बड़ा सुहावन। जब देखेगी बाघ भेड़िया तब न जानेगी आखिर वन कैसा खतरनाक है।

देखो न, कांटो – कुशो में उसे लिये फिरता है। बडे नेमी बने हैं, पलंग पर नहीं बैठेंगे ! मुझे भी साथ नहीं लिया। जान गया कि प्रयागदास यदि साथ रहेगा तो इसकी बहिन सचेत हो जायगी।

वन से वापस अयोध्या लौटने को कहेगी। है बड़ा चतुर यह। वह छोटा (लक्ष्मण) भी बड़ा खोटा है, कहकर नहीं करता। इत्यादि बातें कहते कहते प्रयागदास जी जाने लगे।

कृपालु भगवान् प्रिया अनुज समेत मुस्कराते रहे ! मन्दाकिनी -स्नान करके जैसे प्रयागदास जी अपना बोझ उठाकर चले, वैसे ही योगमाया की कृपा से वे श्री अयोध्याजी पहुँच गये।

उन्हें उस समय तो यही मालूम हुआ कि वे पैदल चलकर ही आये हैं, पर पीछे जब ( अनुभव से ) जान गये, तब कहने लगे – देखो, अपने समीप चित्रकूट में रहने भी नहीं दिया और उठाकर यहां फेंक दिया।

कई दिनों तक यही बकते रहे। फिर भगवान् की लीला का दूसरा दृश्य सामने आया और उसकी भावना में विभोर हो गये। दिन-रात उनका यही हाल था।

श्री अयोध्याजी में चित्रकूट से आकर एक नीम के पेड़ के नीचे उन्होंने अपना आसन जमाया। जैसा भगवान् ने कहा था, उन्होंने ठीक वैसा ही किया।

खाट बिछायी, उस पर तोषक , उस पर राजा महाराजा की तरह ठाठ से सोते।

कभी कोई महात्मा विनोद में कह देते की प्रयागदास जी आपने विरक्त वेष तो ले लिया, आप कोई भजन भी करते है या नहीं। तो वे इस पद को गाकर सुनाते –

अपनी एक वाणी में उन्होंने इसका वर्णन भी किया है –

नीम के नीचे खाट बिछी है, खाट के नीचे करवा।

प्रागदास अलमस्त सोवे, राम लला को सररवा।।

वह प्रसिद्ध पद भी इन्ही का है जिसका अन्तिम चरण यह है –

प्रागदास पहलदवा कारन राघवा है गयो बघवा।

इसी तरह की उनकी मस्तानी अटपटी वाणियाँ होती थी। प्राचीन अयोध्या वासी सज्जन कभी-कभी कहा करते थे और उनके विचित्र चारु चरित्रों की चर्चा किया करते थे।

परमहंस मामा प्रयागदास जी को हुए चार-पांच पीढियां ही है। लगभग डेढ़ या पौने दो सौ वर्ष हुए होंगे।

.❤️जय श्री हरि ❤️

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