बहुत ही सुन्दर और दिल को छू लेने वाली कहानी है

            दिल को छू लेने वाली कहानी :  नारंगी से कपड़ों में, एक ज्योतिषी महोदय विराजमान थे। रसोई से ड्राइंग-रूम तक स्वादिष्ट पकवानों की खुशबू फ़ैली थी। छोटी चाची, बड़े पापा, ताई जी, बड़ी बुआ सब इधर-उधर उन्ही की सेवा – टहल में लगे थे।

चाचा ने मुझे उनके सामने बैठा कर मेरी हथेली उनके आगे फैला दी। स्वामी जी इसका भी देख लीजिये। सब अच्छा है न। “हाँ बिटिया लाओ दिखाओ तो”। एक नज़र मेरे हाथ पर डाल कर ग्रीवा हिलाते हुए बोले, “हाँ, सब बढ़िया है”। और बस, बात ख़तम।

“अरे, बस यही सुनने के लिए चाचा मुझे सोते से जगा लाये थे”। चाचा मेरे मन की बात समझ गए थे । जानते थे कि यह मुंहफट लड़की अभी ज़रूर कुछ बोल देगी। बोले, ‘पंडित जी थोड़ा और कुछ बता दीजिये, विवाह वगैरा सब अच्छा होगा ना”।

पंडित जी ने आश्वासन दिया, ”हाँ, हाँ, सब बढ़िया रहेगा। ये कन्या सोलह वर्ष की आयु के पश्चात जो चाहेगी, वो पाएगी”।

“हाँ
समय की धारा अपने प्रवाह से बहती रही। हम सभी भाई-बहन अपनी-अपनी घर गृहस्थी में सुखी थे। मैं भी अपने ससुराल में खुश थी । भरा-पूरा परिवार था और सभी ने बड़े प्यार से अपनाया था मुझे। पतिदेव थे पूरे भोलेनाथ। सक्षम, पारंगत और निपुण, फिर भी पूर्णतः निश्छल और निष्कपट। ज़रुरत के समय असल काम कर जाना पर दिखावे से कोसों दूर रहना । मेरी हर मुश्किल में देवदूत की तरह हाज़िर हो जाते थे, पर प्रेम-पगे डायलॉग्स बोलने में सर्वथा असमर्थ। परन्तु, अपनी बुद्धिमानी से मुझे कई बार बेवकूफियां करने से बचा ले जाते थे ये। इनके सच्चे और ईमानदार व्यक्तित्व पर बलिहारी थी मैं।

अभी उसी दिन मेरे फूफाजी के दूर के भाई किसी काम से दिल्ली आये थे। हमसे मिलने घर भी आये। आज स्वीकार करती हूँ, उनकी दीन-हीन दशा देख मुझे थोड़ी शर्मिंदगी सी महसूस हुई थी। क्या सोचेंगे मेरे ससुराल वाले। मैंने चाय के साथ बिस्किट्स और नमकीन लगवा दिया था। ये जब ऑफिस से आये, तो दोनों का परिचय हुआ। इन्होंने फूफाजी से बहुत ही आदर और प्रेम से बात की। सांझ ढलने को थी, पर मैंने उन्हें रात के खाने के लिए नहीं रोका। ये शायद सब कुछ समझ चुके थे।

बीच में उठ कर अंदर आये और दृढ़ स्वर में मुझसे बोले, “उनको बोलिये, कि खाना खा कर जाएंगे। वैसे ही खाना लगवाइये जैसे सबके लिए लगता है”।’

ये भी ना, ऐसे तो इन सब बातों से कोई मतलब नहीं रहता था, पर जब मैं कुछ गड़बड़ करूँ तो उसी समय इनका स्वामी रूप तुरंत प्रकट हो जाता था। इन्होंने मम्मीजी, पापाजी के कमरे में जाकर उनको भी बाहर आकर साथ में खाना खाने के लिए बोला। फिर फूफाजी को स्वयं अपने हाथों से परोस कर खाना खिलाया।

वैसे इनकी इसी तरह की हरकतों पर मैं मन ही मन न्योछावर हो जाती थी। इस तरह से मेरी गृहस्थी में सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था, अगर वह एक घटना न घटी होती।
हर दिल अज़ीज़ फेसबुक ने मुझे मेरे बचपन की प्यारी सहेली प्रियंका से मिलवा दिया था। हमारी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। संयोग से वह भी इसी शहर में थी। हम मिलने का भी प्लान बना रहे थे। इसी बीच छोटे देवर का जन्मदिन आया तो मैंनेप्रियंका और उसके पतिदेव को भी आने का निमंत्रण दे दिया था। घर भर की फरमाइश पर चाट पार्टी का प्रोग्राम बन गया था। यह तय हुआ कि गोलगप्पों के अलावा सब कुछ घर का ही बना हुआ होगा। दिन भर खूब उत्साह से मैं चीज़ें पकाने और घर को सजाने में लगी रही थी। शाम को घर का माहौल देखने लायक था। पूरा ड्राइंग रूम ही जैसे चाट की दूकान बन गया था। कोई दोनों में गोलगप्पे खिलाने में व्यस्त था तो कोई दही-बड़े परोस रहा था। नन्द और देवरानी भी लोगों की फरमाइश के अनुसार मटर की टिक्की, तो कभी आलू टिक्की के दोने तैयार कर रही थीं। चाँदी का वर्क लगी, सजी हुई खीर के मिटटी के सकोरे मम्मी जी की कस्टडी में थे। वह जांच पड़ताल कर ही सबको दे रही थीं। मैं राज-कचौरी और दही-चटनी के बताशों के दोने बना रही थी। एक ओर बड़ी भांजी पानी के गोलगप्पे खिला रही थी,तो छोटी मूंग दाल के लड्डू दे रही थी । मेरे बड़े बेटे की ड्यूटी सबको कोल्डड्रिंग पिलाने की थी और छोटू को तो सिर्फ खाने से ही मतलब था। उस दिन गिनती करना मना था कि किसने कितने दोने खाये।

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सब मुझे भी खाने को बोल रहे थे, पर मुझे सबको खिलाने में ही अधिक मज़ा आ रहा था । तरह-तरह के डिशेज़ को बढ़िया स्टाइलिश क्रॉकरी में सजा कर सबको प्रेम से,मनुहार कर-कर के खिलाना, मेरे कई शौकों में से एक था। मेरे मुँह में कभी प्यार से कोई देवर गोलगप्पा रख देता, तो कभी ननद अपने दोने से टिक्की का एक चम्मच मेरे मुँह में डाल देती तो कभी भांजा पापड़ी का टुकड़ा मेरे मुँह में डालते हुए बगल से निकल जाता। मेरा ध्यान गया कि प्रियंका इन सब चीज़ों को कुछ अधिक ही ध्यान से देख रही है। मैंने इनकी पसंद के हिसाब से एक राज-कचौरी बनायी। दही ज़्यादा, हरी चटनी कम, मीठी चटनी थोड़ी ज़्यादा, ऊपर बारीक सेव, थोड़ी बूंदी और सबसे ऊपर अनार के दाने और बिलकुल ज़रा से चुकंदर के लच्छे। इनको दोना पकड़ाने गयी, तो देख कर खुश हो गए।

मुस्कुराते हुए बोले, “वाह। बढ़िया है, तुम भी तो खालो”। इनके सिर्फ एक ‘वाह’ में ही मेरी ढेरों तारीफें छुपी थी। मैं खुश हो गयी थी। जानती थी, इससे अधिक तारीफ करना इनके बस का ही नहीं था।

खा-पी कर सभी को जल्दी निकलना भी था। बाहर जा-जा कर सबको विदा करते-कराते ग्यारह बजने को थे। अंदर आ कर ड्राइंग रूम का नज़ारा देखा, तो सिर चकरा गया। मम्मीजी अंदर आते हुए बोलीं, “चलो तुम्हारी मदद करवा देती हूँ”।

मैंने कहा, “नहीं मम्मीजी, आपके पैरों का हाल वैसे ही बुरा हो रहा होगा”।

मैंने ज़िद करके उन्हें सोने के लिए भेज दिया। टेबल पर नज़र दौड़ाई। बड़े वाले टोकरे में सिर्फ ८-१० बताशे पड़े थे और मिटटी के डोंगे में थोड़ी सी मीठी चटनी थी। दही ख़तम हो चुका था। टूटी-टूटी सी मटर की थोड़ी टिक्कियाँ रखी थीं। मम्मी की बात याद आ गयी कि ‘जब सब पसंद से खा लें और खाना ख़तम हो जाए तो समझो, तुम्हारा खाना पकाना स्वारथ हो गया। वह खाना नहीं अमृत है’।

सोचा, ‘दो परांठे सेंक लेती हूँ, और थोड़ी मटर की टिक्की और अचार तो है ही’।

फ्रिज से गुंथा हुआ आटा निकाल लाई और गैस जला कर तवा चढ़ा दिया। चकला रख, लोई तोड़ी ही थी कि ये आ गए।

गैस बंद करते हुए बोले, “ये क्या कर रही हो”।

मैंने कहा, “बस दो परांठे बना रही हूँ”।

इन्होंने सबसे किनारे की, ऊपर वाली कबर्ड खोली और उसमे छुपकर रखा सामान – दही, चटनी, आलू की और मटर की टिक्कियां, गोलगप्पे, उसका पानी – सब कुछ निकाला।

मैं खुशी से बोली, “अरे, आपने ये सब कब”?

जवाब में इन्होंने एक गोलगप्पे में मटर और पानी भर कर मेरे मुँह में डाल दिया।

फिर डाइनिंग टेबल पर सब सामान ला कर रखा और कुर्सी खींच कर मुझे बैठाते हुए बोले, “खालो, तब तक मैं यहां का हाल थोड़ा ठीक करता हूँ”।

मैं डाइनिंग रूम में बैठी खा रही थी और ये सोफों के नीचे से चॉकलेट के रैपर्स और इक्का-दुक्का चाट के दोने, कांच के गिलास और कोल्कड्रिंक की बोतलें ढूंढ-ढूंढ कर निकाल रहे थे। फिर लबालब भरा हुआ बिन लाइनर उठाकर बाहर फेंकने चले गए। मैं आश्चर्य से इनको देखे जा रही थी और सोच रही थी कि इनको आज हुआ क्या है ।

शाम को चंदा भी घर जा चुकी थी, और मुझे सच में मदद की ज़रुरत थी। मैंने ड्राइंग-रूम और डाइनिंग-रूम की हालत थोड़ी ठीक करी। रसोई में आयी तो देखा सारे मिटटी के डोंगे ढक्कनों के सेट के साथ अलग, चाट की टोकरियाँ अलग, कांच के गिलास अलग सब खंगाल-खंगाल कर पानी भर कर करीने से सिंक के पास सजे थे।

मैंने कहा, “अरे, आप ने ये सब क्यों किया?सुबह चन्दा के साथ सब हो जाता”।

ये बोले, “इतना बिखरा था, सुबह तुम लोग परेशान होते, इसलिए सब ठीक से सेट कर दिया। अब मुश्किल नहीं होगी”। मैं एक बार फिर अपने भाग्य को सराह उठी थी।

कुछ दिनों बाद, प्रियंका ने भी हम दोनों को अपने घर बुलाया। नियत समय पर हम उसके घर पहुँच गए थे। घर क्या था, आलीशान बँगला था । हम दोनों सहेलियां अपनी बातों में खोयी थीं।

अचानक प्रियंका ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, “अरे, तूने सॉलिटेयर अभी तक नहीं पहना? अरे यार, ये इतनी सारी अंगूठियों से अच्छी तो बस एक सॉलिटेयर की अंगूठी लगती। तू भूल गयी क्या? ये देख”, कहते हुए उसने अपना बायाँ हाथ आगे किया। अनामिका में व्हाइट गोल्ड में जड़ा सॉलिटेयर दमक रहा था।

फिर दम्भ भरी आवाज़ में बोली, “मैंने तो भई पहली डिलीवरी के समय ही नेग में मांग लिया था। आखिर बेटा दिया है यार । पहले ही कह दिया था किबच्चे के मुँह तभी दिखाऊंगी जब सॉलिटेयर पहनाओगे”।

सच कहूँ तो, उस समय क्षोभ और ईर्ष्या से मेरा अंतर्मन तक सुलग उठा था। जो मेरा सपना था, जो चीज़ मैं डिसर्व करती थी, वो प्रियंका पा गयी थी। बेटे तो मैंने भी दिए थे, पर इस तरह की कोई बात मेरे दिमाग में कभी आयी ही नहीं थी। जले पर नमक तब और भी छिड़क गया था, जब उसके पतिदेव अपनी बातें रोक कर हमारी और मुखातिब हो गए और बड़ी ही शान से कहने लगे, “भाई, मैं तो इनका ग़ुलाम हूँ। बेग़म साहिबा की हर इच्छा तुरंत पूरी करनी पड़ती है मुझे। वरना खाना नहीं मिलता”और प्रियंका की एक दम्भ-भरी हंसी सुनायी दी थी। मैंने इनकी और देखा। ये उन की ओर देखते हुए शालीनता से मुस्कुरा रहे थे।

मेरे चेहरे की भाव-भंगिमा को प्रियंका ने पढ़ लिया था। बात सम्हालती हुई बोली, “कोई बात नहीं, अब तेरा बर्थ-डे आ रहा है ना, तब मांग लेना भाई साहब से, बस”।

फिर धीरे से मुझसे बोली, “और जब तक सोलिटेयर ना मिल जाए, तब तक बात भी मत करना। इन लोगों को ऐसे ही रास्ते पर लाना पड़ता है”।

प्रियंका की सुलगाई चिंगारी अपना काम कर चुकी थी। रास्ते भर मेरा मूड ऑफ रहा। स्त्री-सुलभ ईर्ष्या से मेरा सर्वांग सुलग रहा था।

पूरे रास्ते इन पर दोषारोपण करती रही कि “आपके घर के लिए, घरवालों के लिए मैंने सारी ज़िंदगी क्या कुछ नहीं किया पर आप मेरी एक इच्छा भी नहीं पूरी कर पाए। एक सोलिटेयर ही तो चाहा था मैंने”।

तभी मैंने देखा कि मेरी इस बात पर ये मुस्कुरा रहे हैं। बस, ये तो जैसे आग में और घी पड़ गया।

मैंने क्रोध में अल्टीमेटम दे दिया, “अब तभी मुझसे बात करियेगा, जब सॉलिटेयर लेकर आइयेगा”।

तब इन्होंने कहा, “अरे, अपनी सहेली की सलाह पर मत जाओ। तुम दोनों में बहुत फर्क है। तुम्हारे ऊपर तो मुझे नाज़ है”।

मैंने कहा, “आपको तो ये सूट ही कर रहा है । खर्च जो बचेगा,इसीलिये ऐसी मीठी-मीठी बातें कर रहे हैं”।

हताश होकर ये बोले, “अग्रवाल साहब के बारे में कुछ पता भी है तुम्हे। मैं नहीं चाहता हूँ वो सब बातें तुम्हे बताऊँ। पर तुम समझ ही नहीं रही हो। अभी आपे में नहीं हो, बाद में बात करेंगे”, कह कर ये गाड़ी खड़ी कर घर के अंदर चले गए।

उस दिन हम दोनों में से किसी ने कोशिश नहीं की उस चुप्पी को तोड़ने की। मुझे उम्मीद थी कि ये अधिक देर मुझसे बोले बिना नहीं रहेंगे क्योकि रूठना-मनाना तो ये जानते ही नहीं थे। यह इनके स्वभाव में ही नहीं था। था तो मेरे स्वभाव में भी नहीं, पर, ऐसा पहली बार हुआ था कि हमारे बीच तीन-चार दिन तक अझेल अबोला रहा।

मैं इतने तनाव को झेल नहीं पा रही थी। प्रियंका की अनामिका में दमकती सोलिटेयर अंगूठी, इनका मुझसे बात न करना, सब मिलकर मुझे बुरी तरह अवसादग्रस्त कर रहे थे। इन सबसे बढ़कर, अपने ऊपर लाड़-प्यार की वर्षा करने वाले घर वालों के लिए, मैंने जो भी गलत-सलत बोला था, उसने मुझे स्वयं की नज़रों में गिरा दिया था। ये सब मेरे बर्दाश्त के बाहर होने लगा था। मैं घबरा कर मम्मी के घर चली आयी। मम्मी-पापा मेरा चेहरा देखते ही समझ गए कि कुछ बात है। दोपहर में खाने के बाद जब हम तीनों अकेले कमरे में मिले, तो पापा ने मुझे दुलारते हुए पूछा, “क्या बात है”।

उनकी इस लाड़ भरी टोन को सुनते ही मैं उनसे लिपट कर फूट-फूट कर रो पड़ी। रोते-रोते मैंने सब कुछ बता दिया। मम्मी का गुस्सा मुझ पर निकलने ही वाला था,पर मैंने देखा, पापा ने उन्हें हाथ के इशारे से मना कर दिया।

पापा कुछ बोले नहीं, बस, मेरा सर सहलाते रहे। मैंने अपना यह डर भी स्वीकार किया कि कहीं इन्होंने मेरी कही हुई बातें घर वालों को बता दीं तो ? कहीं सबने उसे सच मान लिया तो ? क्षोभ, तनाव और आत्मग्लानि से फिर मेरी हिचकियाँ बंध गयी थीं।

जब मैं शांत हुई तो पापा ने कहा, “कहते हैं, अगर अच्छा हीरा खरीदना हो तो चार ‘C’ पर ध्यान देना बेहद जरूरी होता है- ‘Cut’, ‘Color’, ‘Clarity’ और ‘Carat’।

· अगर हीरे का कट सही नहीं होगा, तो हीरा चाहे कितना ही महंगा क्यों न हो, उसमे चमक नहीं होगी, वह फीका ही लगेगा।

· कलर से हीरे की शुद्धता की पहचान होती है। हाई क्वॉलिटी का हीरा बिलकुल कलरलेस होता है उसमे कोई रंग या पीलापन नहीं होता।

· जिस डायमंड में क्लैरिटी हो, यानि जिसमे दाग या छोटे-छोटे निशान और अन्य कमियां ना हों, ऐसा डायमंड ही बेस्ट माना जाता है।

· और अंत में, कैरट। कैरट से डायमंड के वज़न का पता चलता है। हाई-ग्रेड डायमंड को ग़लत कट दिया गया हो, तो वह दिखेगा तो बड़ा, पर वज़न नहीं होगा।

फिर पापा चुप हो गए, बोले, “तुझे कुछ समझ आ रहा है, मैं ये सब क्यों बता रहा हूँ”?

मैं चुपचाप उनकी ओर देखती रही, कोई जवाब नहीं दे पायी।

पापा फिर बोले, “जानती है बुल्ला, तेरी शादी के लिए हमें एक ऐसे ही हाई-ग्रेड डायमंड की तलाश थी। जब गोवर्धन भाई साहब ने अपने बड़े बेटे के लिए तेरे रिश्ते की बात की, तो हम लोगों ने अंशुल में चारों ‘C’ परख कर ही शादी के लिए ‘हाँ’ की थी।

तभी मेरा मोबाइल घनघना उठा । इन्ही का फोन था। बोले, “ऑफिस से चल दिया हूँ, सीधे वहीं आऊंगा”।

मम्मी उठ कर रसोई में चली गयी थीं इन के लिए चाय-नाश्ते का इंतज़ाम देखने। पापा इनके आने से पहले अपने इवनिंग वॉकपूरी कर लेना चाहते थे, सो वो भी चल दिए। कमरे में मैं ही अकेले रह गयी थी। पापा की बातें मेरे मन-मस्तिष्क में गूंज रही थीं और जैसे कुहासे की एक-एक परत छंटती जा रही थी।

मेरे स्मृति-पटल पर कितने ही किस्से कौंध रहे थे। कैसे इनकी इतनी बड़ी कम्पनी के ओनर को सिर्फ इन्ही के सिग्नेचर पर भरोसा था, क्योकि दूसरे सीनियर ऑफिसर्स के इशारे के बावजूद ये सही बात पर ही अडिग रहते थे। कैसे जब एक पार्टी इनके पीछे चुपचाप मेरे लिए हीरे जड़ा सोने का सेट दे गयी थी और इन्होंने उसे वापस देकर, उसकी ज़ोरदार क्लास लगाई थी। कैसे अचानक आयी विपदा के समय सबके मुँह से अनजाने में ही इनका नाम निकलता था। कैसे पूरे परिवार के आगे ये ढाल बन कर खड़े रहते थे। कितना दृढ़, ओजस्वी व्यक्तित्व था इनका। धीर-गंभीर, परन्तु प्रसन्न- ह्रदय। सरल परन्तु बुद्धिमान। मेरे हीरे में चारों ‘C’ कूट-कूट कर भरे थे । कमाल है, इतना बड़ा जीता-जागता हीरा मेरी झोली में था और मैं एक निर्जीव हीरे के पीछे पड़ी थी । कैसी मुर्खा थी मैं।

तभी इनकी आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटी, “तुम यहां हो, मैं सारे घर में ढूंढ रहा हूँ”।

पलट कर देखा, मेरा सॉलिटेयर अपनी मन-मोहिनी मुस्कान के साथ मेरे सामने था। मैं अपने भाग्य पर इतरा उठी ।

इठला कर बोली “इतनी याद आ रही थी आपको मेरी”?

“अब तुम यहां हो, तो पिकप करता हुआ ही तो घर जाऊंगा” ।

मेरे ह्रदय में उठती अपार प्रेम-तरंगों को इनके सीधे-सपाट जवाब ने क्रूरता से विध्वस्त कर दिया था। मैंने अदृश्य हाथों से अपना सर पीट लिया। ‘हे मेरे भोलेनाथ, कभी तो इस तरह के मौकों का फायदा उठा लिया कीजिये’ ।

वापसी में कार घर के बजाय बाजार की तरफ मुड़ने लगी तो मैंने पूछा, “किधर जा रहे हैं हम” ? जवाब मिला, “तनिष्क की तरफ,तुम्हारे लिए सोलिटेयर लेना है । पहले से पता होता तो कैसे भी करके ले लेता”।

किस मिटटी के बने थे ये। कोई नाराज़गी ही नहीं। चेहरे पर कोई तनाव, या अवसाद का भाव नहीं।

“अरे, नहीं चाहिए मुझे”, मैं घबरा गयी।

“क्यों, ….. एक अंगूठी ले लेते हैं न तुम्हारे लिये” इन्होने गाड़ी रोकी नहीं।

“नहीं, नहीं,……. नहीं चाहिए मुझे’।

‘क्योंssssssssss ? इन्होंने ज़ोर देकर पूछा।

“क्योंकि सॉलिटेयर है मेरे पास। बहुत बड़ा वाला।’ और मैंने गाड़ी वापस घर की ओर मुड़वा दी।

………………………यह कहानी बस इतनी ही। फिर मिलेंगे एक नयी कही-अनकही लेकर। आप सब स्वस्थ रहें, खुश रहें।

दिल को छू लेने वाली कहानी

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